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संबंध / महेन्द्र भटनागर

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विश्वास का जब दुर्ग

ढहता है
आदमी लाचार हो
गहनतम वेदना....
मूक सहता है !

तैयार होता है
निरर्थक ज़िन्दगी
जीने के लिए,
प्रति-दिन
कड़वी घूँट पीने के लिए !

जीवन-शेष दहता है !
विश्वास का जब दुर्ग
ढहता है !

या फिर
आत्म-हंता बन
शून्य में ख़मोश बहता है !
विसर्जित कर अस्तित्व
चुपचाप कहता है

किसी का भी
अरे, विश्वास मत तोड़ो,
विश्वास बंधन है,
विश्वास जीवन है !