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अभिप्रेत-वंचित / महेन्द्र भटनागर
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जब
वांछित / काम्य / अभीप्सित
नहीं मिला,
जीने का क्या अर्थ रहा ?
कोसों फैले
लह-लह लहराते उपवन में
जब
हृदय-समायी : मन भायी
गंध-भरा
पुलकित पाटल नहीं खिला ;
जीवन-भर का तप व्यर्थ रहा !
जीने का क्या अर्थ रहा !
जब अन्तर-तम में
हर क्षण, हर पल
केवल मर्मान्तक त्रास सहा !
माना
बहुमूल्य अनेकों उपहार मिले
हीरों के हार मिले,
अनगिनत सफलताओं पर
असंख्य कंठों से
नभ-भेदी जय-जयकार मिले,
सर्वोच्च शिखर सम्मान मिले,
पग-पग पर वरदान मिले !
किन्तु;
नहीं पाया मन-चाहा
लगता है :
दुर्लभ जीवन निष्कर्म गया,
जैसे भंग हुई
लगभग साधित-कठिन तपस्या !
दहका दाह अभावों का,
हर सपना भस्म हुआ !
निर्धन, निष्फल, भिक्षु अकिंचन
जैसे नहीं किसी की लगी दुआ !