अनुभूति / महेन्द्र भटनागर
जीवन-भर
अजीबोगरीब मूर्खताएँ 
करने के सिवा, 
समाज का
थोपा हुआ कर्ज़ 
भरने के सिवा, 
क्या किया? 
ग़लतियाँ कीं
ख़ूब ग़लतियाँ कीं, 
चूके
बार-बार चूके! 
यों कहें -
जिये; 
लेकिन जीने का ढंग
कहाँ आया? 
(ढोंग कहाँ आया!) 
और अब सब-कुछ
भंग-रंग 
हो जाने के बाद _
दंग हूँ, 
बेहद दंग हूँ! 
विवेक अपंग हूँ! 
विश्वास किया
लोगों पर, 
अंध-विश्वास किया
अपनों पर! 
और धूर्त
साफ़ कर गये सब
घर-बार, 
बरबाद कर गये
जीवन का
रूप-रंग सिँगार! 
छद्म थे, मुखौटे थे, 
सत्य के लिबास में
झूठे थे, 
अजब ग़ज़ब के थे! 
ज़िन्दगी गुज़र जाने के बाद, 
नाटक की 
फल-प्राप्ति / समाप्ति के क़रीब, 
सलीब पर लटके हुए
सचाई से रू-ब-रू हुए जब _
अनुभूत हुए
असंख्य विद्युत-झटके
तीव्र अग्नि-कण! 
ऐंठते
दर्द से आहत
तन-मन! 
हैरतअंगेज़ है, सब! 
सब, अद्भुत है! 
अस्तित्व कहाँ हैं मेरा, 
मेरा बुत है! 
अब, 
पछतावे का कड़वा रस
पीने के सिवा
बचा क्या? 
ज़माने को
न थी, न है
रत्ती-भर
शर्म-हया!
 
	
	

