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दूसरा मन्वन्तर / महेन्द्र भटनागर

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भविष्य वह

आएगा कब
जब —
मनुष्य कहलाएगा
मात्रा ‘मनुष्य’ !
उसकी पहचान
जुड़ी रहेगी कब-तलक
देश से
धर्म से
जाति-उपजाति से
भाषा-विभाषा से
रंग से
नस्ल से ?

मनुष्य के मौलिक स्वरूप को
किया जाएगा रेखांकित कब ?
मनुष्य को
‘मनुष्य’ मात्र
किया जाएगा लक्षित कब ?

उसका लोक एक है
उसकी रचना एक है
उसकी वृत्तियाँ एक हैं
उसकी आवश्यकताएँ एक हैं,
उसका जन्म एक है
उसका अन्त एक है

मनुष्य का विभाजन
कब-तलक
किया जाता रहेगा ?
वह आख़िर कब-तलक
बर्बर मन की
चुभन-शताब्दियाँ सहेगा ?

तोड़ो —
देशों की कृत्रिम सीमा-रेखाओं को,
तोड़ो —
धर्मों की
असम्बद्ध - अप्रासंगिक,
दक़ियानूस
आस्थाओं को,
तोड़ो —
जातियों-उपजातियों की
विभाजक व्यवस्थाओं को।

अर्जित हैं
भाषाओं-विभाषाओं की भिन्नताएँ,
प्रकृति नियंत्रित हैं
रंगों-नस्लों की
बहुविध प्रतिमाएँ !

ये सब
मानव को मानव से
जोड़ने में
बाधक न हों,
ये सब
मानव को मानव से
तोड़ने में
साधक न हों !

अवतरित हो
नया देवदूत, नया पैग़म्बर, नया मसीहा
इक्कीसवीं सदी का
महान मानव-धर्म
प्रतिष्ठित हो,
अन्य लोकों में पहुँचने के पूर्व
मानव की पहचान
सुनिश्चित हो !