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अर्द्धरात्रि / सुधीर सक्सेना

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अर्द्धरात्रि है ये
समय की पसलियों में बजता ख़ौफ़
एक कोने से दूसरे कोने तक फैलती है कराह

तन्दूर में भुनती हैं स्त्री की बोटियाँ,
चलती बस में बलात् रौन्दी जाती है स्त्री,
क़लम से इश्क़ के चलते घर के द्वार पर
गोलियों से छलनी होती है स्त्री।

अर्द्धरात्रि में फुसफुसाती हैं दिशाएँ
लाँछन और प्रताड़ना के लिए बनी है स्त्री की देह
धरती के इस छोर से उस छोर तक
स्त्री ढूँढ़ती है सुरक्षित ठौर।

भय के घटाटोप में
आत्मा की निष्कम्प लौ से पूछती है स्त्री
और कितने प्रहर धरती पर टिकेगी अर्द्धरात्रि?