जाने कब / बालस्वरूप राही
जाने कब मनचाहा मोती मिल जाये
यही सोच हर सांझ समंदर के तट पर
हर सीपी को बहुत प्यार से चुभता हूँ।
चाहे कोई लिखे, किसी के लिए लिखे
हर कविता का जन्म दर्द से होता है
मिलता है इतिहास बहुत कुछ हर कवि का
पीछे गाता है, पहले तो रोता है।
सहने सहने की शैलियाँ पृथक हैं पर
हम सब मिल कर व्यथा एक ही सहते हैं
कोई कहता आदि, मध्य, अंतिम कोई
लेकिन हम सब कथा एक ही कहते हैं।
किस से जुड़ कर मेरी रचना पूर्ण बने
यह मुझ को मालूम नहीं है इसलिए
हर गायक का गीत ध्यान से सुनता हूँ।
अपने अपने में हम सभी अधूरे हैं
किसी दूसरे से मिल पूरे बनते हैं
कोई नहीं विरोधी सब पूरक ही हैं
हंसी खेल के लिए रूठते मनते हैं
कुछ तो नीरव एकाकीपन घट जाये।
इसीलिए खुद से ही बोल रहा हूँ मैं
आंगन का सूनापन सहा न जाता है
घर के बन्द द्वार फिर खोल रहा हूँ मैं।
कौन न जाने कब, किस पथ से ले आये
पहला छोर उसी रंगीन दुशाले का
मैं जिस का आखिरी किनारा बुनता हूँ।
आता नहीं अकेला कोई दुनिया में
सबके साथ जनमता एक सितारा है
केवल वह ही साथ रात भर जगत है
आंख मूंद कर सोता जब जग सारा है।
जब कोई नक्षत्र डूब जाता तम में
अकस्मात ही नयन सजल हो जाता है
जाने किस का दिया तिमिर ने लूट लिया
यही सोच कर मेरा मन घबराता है।
कोशिश करता हूँ ओर नींद नहीं आती
फिर फिर उठ अधखुले द्वार तक जाता हूँ
आंखें ढांप बिलखता हूँ, सिर धुनता हूँ