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धूम-मेघ / बालस्वरूप राही
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धूम-मेघ छाए आकाश
जन्मे हैं जंग लगी चिमनी के गर्भ से
जुड़ न सके पावस के रसमय सन्दर्भ से
आँधी में उड़ते ज्यों फटे हुए ताश।
झुलस गये पौधे सब नदी पार खेत के
छूट गये ऊसर में चिन्ह किसी प्रेत के
ओर छोर फैला है सांवला प्रकाश।
जब से ये छाये हैं खिली नहीं धूप
कुहरे ने पोंछ दिया क्षितिजों का रूप
सागर में तैर रही सूरज की लाश।
इतनी तो कभी न थीं बाहें असमर्थ
खोल नहीं पाती हैं जीने का अर्थ
खोई प्रतिबिम्बों में बिम्ब की तलाश।
धूम-मेघ छाए आकाश।