वेलेन्टाइन / संजीव कुमार 'मुकेश'
हमर सभ्य-सनातन के,
के नजर लगइलक डायन।
80 साल के बाबा,
मनबे लगला वेलेन्टाइन।
फटफटया-स्कूटी अखने,
खूब सड़क पर दौडे।
बीच सड़क पर लपटल मिलतो,
सगरो छऊड़ी-छौडे़।
युवा देश के राह भटक गेल,
नञ् हई अच्छा साइन।
हमर सभ्य-सनातन के,
के नजर लगइलक डायन।
देखा-देखी नकल करूँ, ई!
नञ् हल अप्पन देश।
सियार रांग के शेर बना दे,
धरके नकी भेष।
धरती के कोना-कोना अब,
'योगा' कर रहलइ ज्चाइन।
हमर सभ्य-सनातन के,
के नजर लगइलक डायन।
चॉकलेट, टैडीवीयर, गुलाब के,
बढ़ल हो अखने सेल।
चतुर रंगल सियार के इ सब,
गढ़ल-बनाबल खेल।
कोय मॉर्निंग से बिजी हे,
कोय नाइन-टू-नाइन।
हमर सभ्य-सनातन के,
के नजर लगइलक डायन।
माय-बाप के चूल्हा झोकलक,
पढ़के गुगल चलीसा।
गलती से कुछ पुछ देला तो,
निपोरे अप्पन बत्तीसा।
चेतऽ! कंठ तक निंगल गेलो हे,
इ पछियारी कमायन!
हमर सभ्य-सनातन के,
के नजर लगइलक डायन।
80 साल के बाबा,
मनबे लगला वेलेन्टाइन।