भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गाँव के बरगद में जो इक घोंसला महफ़ूज़ है / के. पी. अनमोल

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:00, 24 नवम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=के. पी. अनमोल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गाँव के बरगद में जो इक घोंसला महफ़ूज़ है
कह रहा है गाँव की आबो-हवा महफ़ूज़ है

राम, भोला और रहीमन मिल के खाते हैं जिन्हें
उन सिवइयों में अभी तक ज़ायक़ा महफ़ूज़ है

ख़त नदी में डाल कर मैं सब बहा आया मगर
दिल के तहख़ाने में उसकी हर अदा महफ़ूज़ है

रात मैं मंजिल की चौखट चूम कर भी आ गया
देख मेरे पाँव में यह आबला महफूज़ है

सोचिये हमने तरक्क़ी करके हासिल क्या किया
इल्म के इस दौर में भी क्या भला महफ़ूज़ है

बाग़, रस्ते, मॉल हो या कोतवाली शहर की
माँ, बहन, बेटी की अस्मत किस जगा महफूज़ है

तीरगी से अब यहाँ लगता नहीं है डर मुझे
प्यार का अनमोल दिल में इक दिया महफूज़ है