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स्वयंचेत / कीर्ति चौधरी

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घाव तो अनगिन लगे,
कुछ भरे, कुछ रिसते रहे,
                     पर बान चलने की नहीं छूटी ।

चाव तो हर क्षण जगे,
कुछ कफ़न ओढ़े, किरन से सम्बन्ध जोड़े,
                     आस जीवन की नहीं टूटी ।

भाव तो हर पल उठे,
कुछ सिन्धुवाणी में समाए, कुछ किनारे,
                     प्रीति सपनों से नहीं रूठी ।

इस तरह हँस-रो चले हम
पर किसी भी ओर से संकेत की
                     कोई किरन भी तो नहीं फूटी ।