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विनती / वसुधा कनुप्रिया
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काश,
नीरव रात्रि में
दबे पाँव, यूँ
सब छोड़ जाना
होता सहज
मेरे भी लिये...
तब, हे प्रिय
हे गौतम,
त्याग पुत्र को
चल देती मैं
पीछे तुम्हारे!
नही बनती कभी
बाधा पथ की,
कर लेते विश्वास
तो, सहज ही
बीत जाते महल में
विरह के बरस पाँच
कृतार्थ हूँ, हे महामना
कर विनती स्वीकार
दिया दर्शन, अंततः
किया धन्य मुझे भी
हे गौतम, हे बुद्ध!