भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विछोह / वसुधा कनुप्रिया
Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:49, 17 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वसुधा कनुप्रिया |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हर उत्सव, हर पर्व
यज्ञ, अनुष्ठान
हर त्यौहार के
रंग आकर्षक
हो गये फीके...
बिंदी, बिछुए,
मेहंदी, आलता
श्रंगार सब
हो गया तुच्छ
महत्वहीन,
जब से, तुम
रूठ गये...
अब,
एकाकीपन से
मन घबराता है
स्वयं का
प्रतिबिंब तक
डराता है,
तोड़ दिया आज
आईना आख़िरी...
बस चाहत है
आलिंगन कर
मृत्यु का
देख पाऊँ तुम्हें
और सजा लूँ
तुम्हारे लिये
प्रेम की चमकती
बिंदिया माथे पर!