दलित शिकायत / कर्मानंद आर्य
उनके जघन्य अपराधों के बावजूद 
चुप रहती हैं जलती मशालें  
ताले टूटते नहीं, मिट्टी गीली नहीं होती 
पिटते टूटते ठुकराते सदियों का संताप झेलते हुए पेड़ 
भीतर ही भीतर सूख जाते हैं 
हमारे आँखों के पानी से भीग जाती हैं किताबें 
लिखे हुए हर्फ़ सफ़ेद हो जाते हैं 
हमारी लालटेने धीमी जलती हैं 
उल्काओं से भी धीमी 
जिस उम्र में हमें काले चश्मे की दरकार होती है 
उस उम्र में हम काजल से काम चलाते हैं 
कान में तेल डालकर सुनना कम कर देते हैं गाली 
हम अपनी जन्मतिथि से चार साल बड़े दर्ज होते हैं 
स्कूल के सवर्ण रजिस्टर में 
शिक्षा के बाज़ार में हमारा कोई माई-बाप नहीं 
हमारी दुकान उस तरह नहीं चलती
जैसे चलते हैं संस्कृत विद्यालय  
हमारी कापियां हमारा मूल्यांकन नहीं करती जानबूझकर 
हमें व्यवहारिक परीक्षा में कुछ कम अंक मिलते हैं 
हमारे वजीफे से आते हैं गर्म समोसे
लार टपकाती लाल जीभ लम्बी हो जाती है
हमारी किताबों का दाम वसूलती हुई  
 
फर्जी नामों से करोड़ो का खेल होता है 
उनके भी नाम का वजीफा, फर्जी एडमिशन, रेमेडियल कोचिंग 
जो कभी पैदा ही नहीं हुए 
हमें ऱोज प्रार्थना कराई जाती है 
हमसे आजादी का नारा लगवाया जाता है
जिस सामाजिक आजादी से हम मुक्त नहीं हुए कभी   
जिस प्रार्थना के साथ पैदा हुई हमारी पीढ़िया 
जिस प्रार्थना के साथ पैदा हुआ मैं 
जिस प्रार्थना के बदले पटवारी ने किये दस्तखत
जिस दर्द को हमने महसूसा माँगा अपना हक  
उस हक के लिए भी प्रार्थना 
जो हमारी जाति के साथ पैदा हुई 
हम हिकारत से भरी हुई जाति छुपाये रखना चाहते हैं 
हम हॉस्टल से बाहर निकाल दिए जायेंगे 
बदल दिए जायेंगे हमारे बर्तन 
हमें खाने के लिए कहा जाएगा सबसे बाद में 
अंतिम मेधा सूची से गायब हो जाएगा हमारा नाम  
जातिवादी मुहल्ले में हमें घर के लाले पड़ जायेंगे 
हमारे निर्वासन के साथ झुक जायेंगी हमारी खपरैलें 
हमारी थकान में खो जायेगी हमारी नींद 
शून्य गगन के नीचे हम शोकगीत नहीं गायेंगे 
हम अपने पितरों से संवाद करेंगे 
हम रोयेंगे नहीं, हमारी आँखे लाल हो गई हैं 
हम इलाज नहीं करायेंगे, क्योंकि इनका इलाज नहीं 
हमारी भूख मर गई है 
हम अन्न का मंदिर बनाना चाहते हैं 
हम अन्न खायेंगे नहीं, हम अन्न की पूजा करेंगे 
महान विप्रों हमारे अपराध क्षमा करना 
हम अबोध नहीं जानते सभी में है एक ही आत्मा 
हम नहीं जानते किन कर्मों से हमारा इस कुल में जन्म हुआ 
पर हमने मनुस्मृति जला दी है 
हमारे पैरों की बिवाईयां गहरी हो गई हैं 
हमारे हाथों में गोखरू पनप रहे हैं 
खुर से फैल गए है हमारे होंठ 
जोकों ने चूस लिया है हमारा खून 
अभी हमारे हाथों में कुछ बंदूके थमा दी गई हैं 
कुछ बुलेट, कुछ बैलट, कुछ पव्वे 
बहुत सारा सदियों का संताप
	
	