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मुक्तक / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

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शीशे पे चढ़ी गर्द हटाने में लगे हैं
सच क्या है उसे सबको बताने में लगे हैं।
कल रात लगा ख़्वाब में झेलम की भँवर से
पुरुराज सिंकदर को बचाने में लगे हैं।

दे फकीरी या मुझे तू बादशाही दे
पर ज़रूरत से ज़रा कम वाहवाही दे।
ऐब चीं मुझको न कोई चाहिए 'विश्वास'
ऐब गो उम्दा मुझे मेरे इलाही दे।

अफ़सोस नहीं गांव अभी तक चेता
गर्दन को सरे राह गया है रोता
मजबूत कलेजे का न कोई निकला
कोई तो अदालत में गवाही देता।

आग दरिया में जली है
पीर अंतस की गली है
धार पर हम लिख न पाए
रेत पर उंगली चली है।