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पुकार-2 / रूपा सिंह

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ठहरो... रुको... ।
इत्मीनान से बातें करना चाहती हूँ तुमसे ।
अपने अन्दर जितने अन्धेरे थे,
सबों को दरेर कर बना ली है मोमबत्ती।
धागा डाला है जिसमे बचे-खुचे स्नेह का ।

तुम्हारी मांगें क्यों हैं दियासलाई का झब्बा ?

ठहरो जरा... बहुत चली हूँ मैं।
जरा जांच लूं
अपने सलामत बचे पैरों को,
तुम्हारे गुरबती हाथ जो फैले मेरे सामने
धन्यवाद तो कहूँ अपने फौलादी हाथों को।

चेहरे की लुनाई में भरा है दुःख का पीलापन -
होठों की खुश्की से वे नज़र आते रहे अधिक रंगीन।
ठहरो... रुको... सोचने दो मुझे मेरे बारे में।
मेरे अंग कैसे और कब हुए तुम्हारे ?
टूटती पीड़ा आज फूटने को तैयार है,
अपने फूल चुनने हैं मुझे अपनी ही लाश से।
ठहरो... रुको... बातें करूंगी तुमसे -
पहले जरा बतिया लूं,
अपने आप से
इत्मीनान से ।