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दृष्टि / रंजना गुप्ता

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दृष्टि धुँधली हो गयी फिर
दीप तुम कुछ देर ठहरो...

मन हिरन घबरा रहा है
पाँव कँपते बीहड़ों में...
वेदना संवेदना बन
बँट गयी क्यों ..?
दो धड़ों में...

शब्द गूँगे हो गये अब
मौन से क्रंदन भरो....

दूर तक फैले हुए नभ ने
न कुछ ढाढ़स दिलाया...
आँख का तिनका
समझ कर
राह से तुमने हटाया...

ज़िद के निचले पायदानों
पर फिसलने से डरो...

अनकहे संवाद कितने
हो गये गोठिल सभी...
प्रीत के वातास झरते
हो गये
बोझिल अभी...

है बहुत गहरा कुहासा
रश्मियाँ कुछ तो करो....

हम नदी के पाट से
सूने रहे जन्मों जनम...
घात और
प्रतिघात सहते
मिट गये कितने भरम ...

रात गहरी हो गयी फिर
नींद अब तो पग धरो....