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राग बसन्ती / रंजना गुप्ता

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फूलती सरसों कुहुकती कोयलें
आम बौराए महकती कोपलें

ऋतु बसन्ती की बजी है पैंजनी
पाँव में लिपटी मधुर सी चाशनी
ज्वार बनते
जा रहे हैं हौंसले

धूप के परचम सुनहरे हो गए
पल उनींदे रस भरे दिन हो गए
गीत गन्धा
लेखनी के फैसले

सुस्त तन की मस्त मन की आहटें
आ गया फागुन बताशे बाँटने
ढोल-ताशे
मिल रहे जैसे गले

रँग उत्सव राग धर्मी चेतना
बाँसुरी पिचकारियों की अर्चना

फिर हठी
मधुमास के शिकवे-गिले ।