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इसी तरह / विनोद विट्ठल

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उन दिनों
बड़े और असामान्य समझे जाने वाले घटनाक्रम नहीं होते
बस, यूँ ही आदमी का विश्वास थोड़ा-सा सरक जाता है
धरती नमक और पानी के बाद भी खो देती है अपना स्वाद
मौसम सरकारी कर्मचारियों की तरह नदारद पाए जाते हैं सीट से
भीड़ और हथियार भी नहीं मिटा पाते हैं आदमी का अकेलापन और डर

वे होते हैं सभ्यता के सबसे भारी दिन
जब दिन कम हवा की पुरानी साइकल की तरह
थका देते हैं सवार को
रास्ता अपनी लम्बाई के हार्मोन कहीं से चुरा ले आता है

सचमुच वे दिन इतने भारी होते हैं
कि लगता है शेषनाग थक जाएगा
कि अब थका, अब थका
तभी अचानक
एक बच्चा ज़ोर से हंसता है
एक लड़की अपना थोड़ा-सा हिस्सा
हमेशा के लिए किसी को दे देती है
एक पुराना प्रेमी समय की सन्दूक से निकालता है कुछ क्षण
और उन्हें अकेले कमरे में पहनता है
कोई कविता लिखता है

इस तरह धरती अपनी जगह शान्त हो जाती है
टँक जाती है चान्द की तरह भारविहीन हो

हमेशा हार जाते हैं वे दिन
इन दिनों से
इसी तरह ।