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कर्तव्य बोध / साधना जोशी
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स्त्रियाँ आज भी खामेष है,
कर्तव्य बोध में,
प्रगति की राह में चल पड़ी है,
लाचारी आज है
नैनों के अष्क बहते भी हैं
किन्तु छुप - छुप के ।
जोष में कमी नहीं है
सबको जगाने का हुनर रखती है
खामोषी है, लाचारी की नहीं
कर्तव्य बोध की ।
हृदय का आक्रोष प्रज्वलित होता है,
कर्तव्य बोध की षीतलता, उसे
बुझा देती है, भावो की लहरों को
वह मन में दबा लेती है ।
मर्यादा परिवार की
मर्यादाओं में सहती है
कुंठाओं, के सागर में
आषाये संजोती है ।
अनेको कुण्ठाओं की
आषाये संजोयी है
छोटी - छोटी खुसियों से
उसकी षक्ति बनी उसकी षिक्षा,
और आत्म निर्भरता,
जिसके कारण वह खामोष है,
किन्तु अपने आत्म बल के
कायम रखकर ही बढती जाती है।
जीवन की राहों में से
कर्तव्य बोध है ।