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मानव / साधना जोशी
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ऐ मानव तुम क्यों रो रहे हो,
तुम हर हाल में ।
ईष्वर ने तुम्हे कई उपहार,
दिये है, मुफ्त में ।
पर ये क्या?
तुम अपने पास क्या है?
ये देखते नहीं,
न उसका उपभोग करता है ।
हाय! तेरा ये रोना कि,
दूसरे क्या मिला है,
देख कर आँषू बहाता है,
और अपने सारे सुख को,
यूँ ही गवां देता है ।
इसे तेरी नादानी कहूँ,
या ना समझी,
तुम अपने पर की गई मैहरबानी,
को कभी नहीं समझ पाते हो,
इसिलिए ही रोते-रोते सारी,
उम्र बिता देते हो ।
जरा अपनी खुषियों की गठरी,
खोल तो ले ।
अपने खजाने को,
तोल तो ले ।
कई अनमोल रत्न तेरे खजाने में भी है,
जरा उनकी कीमत को जान ले,
अपने अनमोल जीवन को पहचान ले ।
अनमोल है जीवन धरा पर,
इसको क्यों? व्यर्थ गवां बैठा है ।