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दोहे-1 / राजेन्द्र वर्मा

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पंचतत्त्व से है बना, यह अनमोल शरीर
इसमें ही बैठा हुआ, पीरों का भी पीर ।।

काया माटी-सी चढ़ी, कुम्भकार के चाक ।
गीली मिट्टी घूम-फिर हो जाती है ख़ाक ।।

भोर-साँझ होती रही, जीवन हुआ तमाम ।
कांचन काया भी नहीं, आयी अपने काम ।।

काया के इस भेद को, जानें विरले लोग ।
पाँचों अपने घर चले, टूट गया संयोग ।।

इधर उड़ा पंछी, उधर, सभी हो गये दूर ।
अपने भी अपने नहीं, दुनिया का दस्तूर ।।

एक दिवस है आदि तो, एक दिवस है अन्त ।
दो दिवसों के मध्य में, जीवन भरा अनन्त ।।

जिसे ढूँढ़ता मैं रहा, यहाँ-वहाँ दिन रात ।
जीवन भर रहता रहा, वह मेरे ही साथ ।।

बाह्य चक्षुओं से दिखे, संभ्रम सत्य-समान ।
जैसे पृथ्वी स्थिर दिखे, सूर्य दिखे गतिमान ।।

दुनिया में गुनवन्त जन, होते नहीं अनेक ।
एक सूर्य, इक चन्द्रमा, ध्रुवतारा भी एक ।।

कभी जेठ की धूप है, कभी माघ की धूप ।
एक धूप को दे दिये, किसने दो-दो रूप !

राजा, मन्त्री, आमजन, पशु, पक्षी नायाब ।
मिट्टी से क्या-क्या बने, कोई नहीं हिसाब ।।

प्रेमपन्थ पर पग बढ़ा, हूँ निर्भय-स्वछन्द ।
पग-पग पर मिलने लगा, पीड़ा में आनन्द ।।

छप्पन भोगों को छका, फिर भी रहा अतृप्त ।
भूखे को रोटी खिला, आज हुआ मन तृप्त ।।

जीवित रहने का हमें, करना पड़ता यत्न ।
वे रहते दरबार में, कहलाते नवरत्न ।।

चलने को तो चल रहे, मेरे साथ अनेक ।
पर मेरे गंतव्य तक, साथ न देता एक ।

पत्थर के सब देवता, पत्थर ही के लोग ।
दुखिया को रोटी नहीं, ठाकुरजी को भोग ।।

गांधी की टोपी चखे, सिंहासन का स्वाद ।
घीसू-माधो से हुई, मधुशाला आबाद ।।

सवा सेर गेहूँ लिया, किया अतिथि-सत्कार ।
जीवन-भर चुकता किया, फिर भी चढ़ा उधार ।।

जनगण पर चलते रहे, संकल्पों के तीर ।
‘जनगण-मन’ गाता रहा, लालकि़ला-प्राचीर ।।