अम्मा / संजय पंकज
चूल्हा हो या हो घर आंगन
सबमें खटती जलती अम्मा
धूप संग दिन रात उसीके
फिर भी जलती गलती अम्मा।
खुली देहरी हवा बाहरी
जब भी घर के प्रतिकूल गई
असमय देख पसीने माथे
अम्मा अपना दुख भूल गई
बिस्तर से बिस्तर तक पहुँची
तब तक केवल चलती अम्मा।
कभी द्वार से लौट न पाए
कोई भी अपने बेगाने
घर भर में हिम बोती है जो
उसके हिस्से झिड़की ताने
गोमुख की गंगा होकर भी
अग्नि कोख में पलती अम्मा।
कैसी भी हो विपदा चाहे
उम्मीद दुआओं की उसको
बिना थके ही बहते रहना
सौगंध हवाओं की उसको
चंदा-सा उगने से पहले
सूरज जैसा ढलती अम्मा।
पीर पादरी पंडित मुल्ला
मंदिर मस्जिद औ गुरुद्वारे
हाथ उठाए आँचल फैला
मांग रही क्या साँझ सकारे
वृक्ष नदी गिरि शीश झुकाती
जितना झुकती फलती अम्मा।