भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आकर्षण / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:40, 13 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह= मधुरिमा / महेन्द्र भटनागर }} ज...)
जितने पास आता हूँ तुम्हारे इंदु
उतने ही सँभल तुम दूर जाते हो !
पहले ही बता दो ना
पहुँचने क्या नहीं दोगे ?
पहले ही अरे कह दो
कि मेरा प्यार ना लोगे !
- जितना चाहता हूँ ओ ! तुम्हें राकेश
- उतने ही बदल तुम दूर जाते हो !
आओगे न क्या मेरे
कभी एकांत जीवन में ?
क्या अच्छा नहीं लगता
विहँसना स्नेह-बंधन में ?
- जितना चाहता हूँ बाँधना ओ सोम !
- उतने बन विकल तुम दूर जाते हो !
ऊपर से खड़े होकर
निरंतर देखते क्यों हो ?
किरणें रेशमी अपनी
सँजो कर फेंकते क्यों हो ?
- जैसे ही अकिंचन मैं उलझता भूल
- वैसे ही सरल ! तुम दूर जाते हो !