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नाभिकुंड / ऋषभ देव शर्मा
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एक सपना 
दिखाई देता है मुझे बार–बार :
तुम्हारे हाथों में 
थमा दी गई है एक कुल्हाड़ी 
बीच बाज़ार में 
और 
धोबियों के मुखौटे लगाए हुए 
बहुत सारे लोग 
माँग रहे है तुमसे 
मेरे प्रति अप्रेम का प्रमाण,
गुज़ारने पड़े थे न तुम्हें 
कई दिवस 
मेरी अशोक वाटिका मैं!
तभी आता है कोई 
वनवासी राजकुमार ,
तुम्हारे हाथ से लेकर कुल्हाड़ी
काट डालता है 
मेरी नाभि में छिपे अमृतकुंड की जड़े;
और तुम–
कटे पेड़ की तरह ढह जाती हो!
पर–
सपने तो सपने होते हैं न!
 
	
	

