भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
14-अगस्त / हबीब जालिब
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:20, 12 अगस्त 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हबीब जालिब |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNaz...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कहाँ टूटी हैं ज़ंजीरें हमारी
कहाँ बदली हैं तक़रीरें हमारी
वतन था ज़ेहन में ज़िन्दाँ नहीं था
चमन ख़्वाबों का यूँ वीराँ नहीं था
बहारों ने दिए वो दाग़ हम को
नज़र आता है मक़्तल बाग़ हम को
घरों को छोड़ कर जब हम चले थे
हमारे दिल में क्या क्या वलवले थे
ये सोचा था हमारा राज होगा
सर-ए-मेहनत-कशाँ पर ताज होगा
न लूटेगा कोई मेहनत किसी की
मिलेगी सब को दौलत ज़िन्दगी की
न चाटेंगी हमारा ख़ूँ मशीनें
बनेंगी रश्क-ए-जन्नत ये ज़मीनें
कोई गौहर कोई आदम न होगा
किसी को रहज़नों का ग़म न होगा
लुटी हर-गाम पर उम्मीद अपनी
मोहर्रम बन गई हर ईद अपनी
मुसल्लत है सरों पर रात अब तक
वही है सूरत-ए-हालात अब तक