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शायद / दिनेश्वर प्रसाद
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अभी मैं हारा कहाँ हूँ ?
अभी तो युद्ध जारी है ।
टूटे हुए हथियार ही सही, हाथ में तो हैं
उनसे ही लड़ता रहूँगा मैं
अभी मैं असफल कहाँ ?
घात- प्रतिघात झेलते
लड़ता रहूँगा मैं
अन्तिम क्षण तक
यह सोचते हुए कि
शायद जीत जाऊँ
यह शायद ज़िन्दा रखता है मुझे
मेरी आशा इसी में बन्दी है
इसी में बसा हुआ अनिश्चय
मेरी निराशा के कानों में कहता है
कि मैं भी तो जीत सकता हूँ
अन्तिम क्षण तक
जीत भी तो सकता हूँ
(11 दिसम्बर 1986)