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ढहता महल / महेन्द्र भटनागर
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द्रोह-युग प्रत्येक मानव-वर्ग में संघर्ष,
है कहाँ जन-मुक्ति, सुख, स्वाधीनता का हर्ष !
क्रूर बर्बर घोर हिंसक नाश-वाहक द्वन्द्व,
प्राण जन के त्रास्त, जीवन-मुक्ति के पट बन्द !
कौन छाया-सा भयंकर देखता है घूर
ठीक सिर पर आ गया जो था अभी तक दूर !
बद्ध खूनी लाल पंजे में हुआ समुदाय
चीखता, रोदन करुण, नत प्रति निमिष निरुपाय !
स्वार्थ औ’ पाखंड-संस्कृति से विनिर्मित भूत
पत्रा, मिल, पूँजी, सबल कल, जाल-सा बुन सूत !
फल गयी मकड़ी, समाजी तन सतत घुल क्षीण
हो रहा जर्जर, धँसी ले आँख पीली दीन !
पर, नयी अब उत्तरी-ध्रुव से उठी आवाज़,
देखता हूँ विश्व, केवल रूस जनता राज !
दे रहा साहस, दिशा, संबल, सृजन की शक्ति
स्तम्भ मानवता सुदृढ़, पा शोषितों की भक्ति !