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विपाशा / कुमार विकल

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विपाशा किसी नदी या नारी का नाम नहीं

बल्कि किसी पुराने स्मृति-कोष्ठ से निकल कर आए

एक सूख गए जल—संसार का धुंधला—सा बिम्ब है

जिसे…

मैं सोचता हूँ,

शायद ही मेरी कोई कविता सहेज पाए।


यह बिम्ब मैंने पहली बार

बचपन में कहीं

बरीमास के मेले में

पीर के मज़ार पर नाचतीं

तवायफ़ों के पवित्र चेहरों पर

धुंधले चिराग़ों की रोशनी में देखा था

या लुधियाना के बूढ़े दरिया की झुर्रियों में बहती

एक बरसाती नदी से उछलकर

मेरी किशोर चेतना में अटका था

औ’ जिसे अपनी आँखों में संजोकर

मैं रात—रात भर

उस शहर की सजल सड़कों पर भटका था।

बरीमास बहुत पीछे रह गया है

बूढ़ा दरिया अब मर चुका है

बरसाती नदी एक गंदी नाली बन कर बह रह रही है

और पूरा शहर एक रेगिस्तान बनता जा रहा है

लेकिन सफ़ेद कपड़ों वाला

वह उच्छृंखल-सा छोकरा

शहर में दनदनाता चिल्ला रहा है—

‘विपाशा किसी कवि के स्मृति-कोष्ठ से निकला मात्र एक

काव्य—बिम्ब नहीं

बल्कि बीस धाराओं वाली एक गहरी और शांत नदी का

पुराना नाम है

आओ ! नदी के परिवर्तित मार्ग का स्वागत करें

और इसे एक नया नाम दें

इसकी बीस धाराओं के जल से

रेगिस्तानों को सींचें

इसके किनारों पर अपने घर बनाएँ

और उस सिरफिरे शायर की बकवास बातें भूल जाएँ

जो विपाशा को एक सूख गए जल-संसार का धुंधला-सा बिम्ब कहता है।’

हाँ मैं यह भी अनुरोध करता हूँ

कि यदि आप भूल सकते हैं

तो यह सब भूल जाएँ—

कि केवल उथली नदी भी रास्ता बदलती है

और जब नदी रास्ता बदलती है

तो भीषण प्रलय मचाती है

किनारों पर बने कच्चे घरों को तोड़ जाती है

और शहर की हर चीज़ को बरबाद करके

अंत में उथली नदी

अपने ही अंध वेग से थक हार कर

मर चुके बूढ़े दरिया की कब्र पर

अपने टूटे दर्प का

आखिरी दीया जलाने पहुँच जाती है

इतिहास ऐसे दर्प को क्या नाम देगा

सिरफिरे शायर का उत्तर भूल जाएँ

और अपने होंठ बिल्कुल मत हिलाएँ।