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सुख / कीर्ति चौधरी

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रहता तो सब कुछ वही है

ये पर्दे, यह खिड़की, ये गमले

बदलता तो कुछ भी नहीं है।


लेकिन क्या होता है

कभी-कभी

फूलों में रंग उभर आते हैं

मेज़पोश कुशनों पर कढ़े हुए

चित्र सभी बरबस मुस्काते हैं।

दीवारें : जैसे अब बोलेंगी

आसपास बिखरी किताबें सब

शब्द-शब्द

भेद सभी खोलेंगी।


अनजाने होठों पर गीत आ जाता है।


सुख क्या यही है ?


बदलता तो किंचित् नहीं है,

लेकिन क्या होता है कभी-कभी !