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करवट / प्रगति गुप्ता

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रिश्तों के करवटें लेते ही
मुस्कुराहटों को-
सिकुड़ते देखो कभी...
खामोश-सी चुप्पी में
दबी फुसफुसाहट को
सुनकर देखो कभी...
वहीं कहीं छिपी
अपनी टूटन को ज़रूर
समेट कर रखना...
रिश्तों के करवट लेते ही
पलकों पर ढाढ़स की
चादर ओढ़ कर रखना...
यही हुनर तो ज़िन्दगी को
वक्त बेवक्त सिखाना है
हम सबको कुछ सबक दे
उसको तो
यूँ ही निकल जाना है...