खिड़कियाँ / कुमार विकल
जिन घरों में खिड़कियाँ नहीं होतीं
उनमें रहने वाले बच्चों का
सूरज के साथ किस तरह का रिश्ता होता है?
सूरज उन्हें उस अमीर मेहमान —सा लगता है
जो किसी सुदूर शहर से
कभी —कभार आता है
एकाध दिन के लिए घर में रुकता है
सारा वक्त माँ से हँस—हँस के बतियाता है
और जाते समय
उन सबकी मुठ्ठियों में
कुछ रुपये ठूँस जाता है|
जिन घरों में खिड़कियाँ नहीं होतीं
वहाँ से धूप बाहर की दीवार से लौट जाती है
जैसे किसी बच्चे के बीमार पड़ने पर
माँ की कोई सहेली मिजाजपुर्सी के लिए तो आती है
किंतु घर की दहलीज़ से ही
हाल पूछ पर चली जाती है|
जिन घरों में खिड़कियाँ नहीं होतीं
वहाँ के बच्चों को रोशनी की प्रतीक्षा—
कुछ इस तरह से होती है
जिस तरह राखी के कुछ दिनों बाद
घर के सामने से
पोस्टमैन के गुज़र जाने के बाद
पहले पोस्टमैन को कोसती है
बाद में रसोई में जाकर
अपने भाई की मजबूरी समझ कर
बहुत रोती है|
जिन घरों में खिड़कियाँ नहीं होतीं
वहाँ पर चाँदनी कुछ इस तरह से आती है
जैसे किसी खिड़कियों वाले घर में
पक रहे पकवानों की ख़ुशबू
दूर तक के घरों में फैल जाती है|
जिन घरों में खिड़कियाँ नहीं होतीं
वहाँ पर कोई लोरियाँ नहीं गाता
चाँद को चंदा मामा नहीं कहता
पियक्कड़ पिता की आवाज़ ही बच्चों को सुलाती है
और किसी औरत के सिसकने की आवाज़
चौकीदार के ‘जागते रहो’ स्वर में खो जाती है|