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पिता / सत्या शर्मा 'कीर्ति'

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मैं भी कभी पिता बन
पिता होने के उस एहसास
को पाना चाहती हूँ

कि कैसे रोक लेते हैं पिता
आँसुओ के नदी को और
फिर बन जाते हैं वो
खुद ही समंदर

कि कैसे मुस्कुराते हैं पिता
जीवन के कठिन क्षणों में भी
और खुद बन जाते हैं
राहतों के पल

कि कैसे दिल थाम बने
रहते हैं सहज और शांत पिता
अपनी जवां होती बिटिया
को देख कर

कि कैसेअपने बेरोजगार बेटे
को बँधाते हैं ढांढस
और सम्भालते है उसकी
भी गृहस्थी को

कि कैसे तंगी के दिनों भी
बच्चों पर नही आने देते
कोई भी परेशानियों के
बादल

कि कैसे कभी नही करते
किसी सेअपने बीमारियोंका ज़िक्र
और होते जाते हैं खोखले
अंदर ही अंदर

कि कैसे अपने पूरे परिवार से
दूर किसी अनजान से शहर में
गुजार देते है पूरी उम्र
ताकि परिवार के लिए जुटा सकें
सुविधाओं के दिन

कि कैसे अपनी बिटिया सौंप
देते हैं अजनबियों के हाथों
पर अपने दर्द उभरने नही देते
चेहरे पर

कि कैसे छुपाते हैं अपने बुढ़ापे को
और अपने थकते शरीर को
ढोते रहते हैं अपने ही कंधों पर

कि अपने आने बाले अंतिम
क्षणों की आहट सुन भी
बने रहते हैं अपनों के लिए
एक मजबूत से छत

हाँ एक बार पिता बन
उनके एहसास को , उनके
जज्बात को ,उनके संस्कार को ,
उनकी ऊंचाई को ,
हृदय की गहराई को छूना
चाहती हूँ

काश एक बार...