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प्रतिनिधि / गिरिराज किराडू
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पेट में उसके आंते सिकुड़ गई हैं
पेट में उसके एक पुरानी गांठ है
गांठ उसके पेट में कुछ उतनी ही जगह घेरती है जितनी में आराम से सकता है एक बच्चा
और बच्चे इतने काल्पनिक हो गए थे हमारे लिए कि वे हमारा नहीं ऊपर वाले का ख्वाब हो गए थे
और संसार की तरह व्याप गए थे हमरो मौजूद होने की हर अदा पर
जैसे खुद संसार के मौजूद होने की हर अदा पर व्याप गई थी
वह गांठ जिसे वह अत्याचार की ऐंठन की अदा कहना चाहती रही होगी
यह गांठ ही मेरी निधि है उसने कहा
मैंने कहा तुम मेरी प्रतिनिधि हो
(प्रथम प्रकाशनः इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी)