भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उपजीवन / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:29, 24 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पूनम भार्गव 'ज़ाकिर' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रस्फुटन
कहीं भी
कभी भी
हो सकता है
जीव कहीं भी
पनप सकता है
उपजीवी जीवन
नहीं देखता कि
वो जियेगा कैसे
उसे भरोसा है
उस पर
किसी की कृपादृष्टि
पड़ ही जायेगी
वो जी ही जायेगा
जैसे पलते हैं
कर्महीन योद्धा
दूसरों के कंधे पर रख
बन्दूक

नन्ही-सी जानों
प्यारी-सी पौधौं
अरमानों की
तुम
उग तो गए हो
रेत कणों के सहारे
ज़ंग लगे उन तालों में
जिनकी चाबियाँ
कभी नहीं खोलेंगी
विकास के राज़
पनप रहे हैं
वो भी
सँस्कृति के नाम पर
और जी रहे हैं
परजीवी की तरह

तुमसे इल्तिजा है
थोड़ी-सी ज़मीन
रख लो अपने नीचे
जमा लो जड़ें
आस-पास

जान लो
ईमानदार न हो
सोच
ना हो पहचान
मिट्टी की सुगन्ध से
तो
पल नहीं सकता
फल नहीं सकता
कोई भी बीज
काई के सहारे!