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पासपोर्ट / प्रियंका गुप्ता
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वो खिड़की
जिस पर खड़े होकर
मेरी निगाहें मुट्ठी भर आसमान
अपनी नन्हीं हथेलियों में बाँध लेती थीं
गेट के पार
देखने की कोशिश करते
वहीं पर खूब ऊँचे तक
उचकते मेरे छोटे से कदम
कभी कभी थक जाया करते थे
खिड़की के उस पार
एक बड़ा समुंदर था
जिस में तैरती थीं
मेरे सपनों की नन्हीं रंगीन मछलियाँ
और एक कागज़ की नाव भी
जिस पर बैठ के
जाने कहाँ-कहाँ तक
घूम आती थी मैं
वो खिड़की अब शायद चटक गई होगी
मेरे बड़े और मजबूत पैरों का बोझ
उठाया नहीं जाएगा उससे
पर फिर भी
कौन जाने
मेरा समुंदर आज भी वहीं हो
और हिचकोले खाती नाव भी
बस अब
दूर देश जाने का
पासपोर्ट मेरे पास नहीं।