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तृप्ति / सुनील श्रीवास्तव
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उठो न
उठो न तुम
देखो, बादल घिरे हैं आकाश में
और मैं
मैं एक बून्द बनकर
लटका हूँ
तुम्हारे आँगन के ऊपर
उठो, तुम आँख मलते
देखो, आकाश की तरफ़
और तभी मैं
चू जाऊँगा
तुम्हारे लाल
ख़ूब लाल होंठों पर
तुम जीभ फिराना होंठों पर
और समाहित कर लेना मुझको
अपने भीतर
मैं समा जाऊँगा तुझमें
एक स्वाद बनकर
मुझे माफ़ करना
मैं सिर्फ़ स्वाद नहीं बनना चाहता हूँ
बनना चाहता हूँ तृप्ति तुम्हारे लिए
मगर ....