भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुलमोहर / श्रीप्रकाश शुक्ल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:47, 5 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीप्रकाश शुक्ल |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
धूप खड़ी है
हवा स्तब्ध है
जेठ की धरती पपड़िया गई है
पगडण्डियाँ चिलचिला रही हैं
सड़क सुनसान है
और आदमी अपनी ही छाया में क़ैद है
एक ज़हर है
जिसमें पूरी बस्ती नीली हो गई है
बस, बचा है केवल गुलमोहर
जो अपने चटक लाल रंगों में
अभी भी खिलखिला रहा है !