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भाषा / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

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इस वक़्त जब
भाषा का प्रयोग
विचारों के आदान-प्रदान के लिए नहीं
सहूलियत के लिए हो रहा है
शब्द अपना अर्थ
खो रहा है
वाक्य अपनी लाश
ढो रहा है
वे बोल रहे हैं—समाजवाद
और खाइयाँ चौड़ी करवा रहे हैं
वे बोल रहे हैं —फूल
और निरंतर बम बना रहे हैं
ओऽम् शांति शांति का उच्चारण
और दंगों का अभ्यास
साथ-साथ करवा रहे हैं
इस वक़्त जब
व्याकरण के लिए
सबसे अधिक वही चिंतित हैं
समूचे विराम चिह्न
जिनकी तिजोरी में
बाक़ायदा संचित हैं

इस वक़्त जब
भाषा का निचोड़
उनकी इच्छानुसार निकल रहा है
रोको मत,जाने दो
रोको,मत जाने दो में बदल रहा है

ज़रूरी निहायत ज़रूरी है
सही अर्थों के लिए
जाँच-पड़ताल करना
कौन बोल रहा है

सच तो यह है भाई
भाषा इस कविता में
केवल एक उदाहरण है