भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बुखार / अनामिका अनु
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:25, 12 दिसम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनामिका अनु |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मेरा बुख़ार तेज़ हो गया है
पिता देते हैं ज्वाराँकुश
मेरा बुख़ार सरसरा कर उतर रहा है
आहिस्ते साँप अपना केंचुल उतारता है
मैं हल्का होकर उड़ जाता हूँ
मिलने ब्रह्माण्ड में छितराए
कवियों से
एक सुनसान श्मशान में
परिजन ओढ़ाकर सफ़ेद चादर
छिड़ककर फूल हल्दी चन्दन
मेरे मुक्ति की कर रहे हैं कामना
एक लड़की रो रही है दूर खड़ी
जो न आभासी थी
न कभी रही मुझसे दूर
वास्तविक दुनिया का यह वीरान
आभासी दुनिया की शोरग़ुल से नितान्त अलग है
कविताएँ अब कहीं जाएँगी
एक मृत कवि की...
जब वे सुगबुगाएँगी पन्नों पर
कवि जाग उठेगा
यह वही कवि है
जिसने पहाड़ पर टाँगी लालटेन
और हमने पहाड़ देखा