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छितकुल / सत्यनारायण स्नेही

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छितकुल
प्रकृति ने तुम्हें ख़ूब सजाया
रूप दिया बद्रीनाथ का
नहीं बन पाए बद्रीविशाल
तुम्हारे पास है बस्पा
साथ है किन्नर कैलाश
अवस्थित है
सप्तऋषि जैसे पहाड़।
तुम पिलाते रहे मूरी, राशी
देते रहे निरीह जानवरों की जान
तुम्हारी खूबसूरती क़ैद है
अनगिनत आंखों में
सजी है आलीशान भवनों के
ड्राईंग रूम में
निहारते हैं लाखों मेहमान।
छः महीने
बर्फ़ानी रात में
छुप जाते हैं अपने आगोश में
बदलते ऊन को आवरण में
बचाए रखे हैं तुमने
फाफरा, ओगला के बीज
भोजपत्र, गूगलण, काडू और पतीश
चिलटा से कैंसर का निदान
देवी "माथी" की कला।
सुनो छितकुल!
तुम्हें दर्द तो होता होगा
जब कुतरते पहाड़
निगलते नदियाँ
बढ़ती भीड़
बदलती तस्वीर
पिघलते ग्लेशियर
चमकते पत्थर।
हे छितकुल
कभी सोचा तुमने
जब आदमी खेलता रहेगा
पानी और पत्थर से
सजाता रहेगा बाज़ार
स्खलित हो जाएंगे
बर्फ़ के पहाड़
खतरे में आ जाएगी बस्पा
कैसे बचेगा फाफरा, ओगला
कैसे बनेगा चिलटा
कैसे देवी "माथी"
दूर करेगी बांझपन
कदाचित
तब नहीं पड़ेगी
छः महीने की बर्फ़ानी रात।