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जलकुम्भी / शलभ श्रीराम सिंह

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जलकुम्भी गंगा में बह आई है !
यहाँ भला कैसे रह पाएगी, हाय,
बँधे हुए जल में जो रह आई है !
जलकुम्भी

नौका परछाई को तट माने है
हर उठती हुई लहर को अक्सर
हवा चले हिलता पोखर जाने है
अपनावे पर यह विश्वास
फिर न कभी आ पाऊँगी शायद —
घाट-घाट कह आई है !
जलकुम्भी

बरखा की बून्द हो कि शबनम हो
पानी की उथल-पुथल
चाहे कुछ ज़्यादा हो या थोड़ी-सी कम हो
कभी नहीं तकती आकाश
इससे भी कहीं अधिक सुख-दुख वह
अब तक की यात्रा में सह आई है !
जलकुम्भी