स्वाभिमान / मोहन अम्बर
पांव चलना अभी सीख पाये नहीं,
किन्तु रूकना मुझे ठीक लगता नहीं।
दीप हूँ मैं मगर जल रहा किस तरह
यह कहानी किसी को पता थी नहीं
और रोका बहुत ही गया साँस को
साँस फिर भी बहुत कुछ बताती रही
इसलिए कि जलते हजारों दिए
उस तरह जिस तरह मैं शपथ हूँ लिए
आँधियों पर मुझे जय नहीं मिल रही,
किन्तु बुझना मुझे ठीक लगता नहीं।
पाँव चलना अभी सीख पाये नहीं,
किन्तु रूकना मुझे ठीक लगता नहीं॥
स्वर्ण बाज़ार तक जब गये ये नयन
सेठ साहू बजाने लगे तालियाँ
अ़श्रु लेकिन वहीं पर था बिकने खड़ा
वह मुझे दे रहा था बहुत गालियाँ
गालियाँ सुन हुई भीड़ आकर खड़ी
बात मुझको तभी यह बतानी पड़ी
दृष्टि आकर्षणों पर गई भूल से
मि़त्र! सपना मुझे ठीक लगता नहीं।
पाँव चलना अभी सीख पाये नहीं
किन्तु रूकना मुझे ठीक लगता नहीं॥
एक दिन कह रही थी हवा पेड़ से
बस निमिष दो निमिष का है मेहमान तू
पर नमस्कार कर ले अगर तू मुझे
तो तुझे आज मैं उम्र का दान दूँ
किन्तु निर्माण की शक्ति की आन से
पेड़ कहता रहा यों बड़ी शान से
टूटता तो रहा मैं सदा ज़ुल्म से,
किन्तु झुकना मुझे ठीक लगता नहीं।
पाँव चलना अभी सीख पाए नहीं,
किन्तु रूकना मुझे ठीक लगता नहीं॥