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मुखौटे / सुदर्शन रत्नाकर
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मैं अपनों में
अपने को ढूँढ़ती रही
पर न मुझे अपने मिले
न मैंने अपने को ढूँढ़ा
मिला तो मन का ख़ालीपन
और हृदय की संवेदनहीनता,
पीड़ा की अनुभूति और
अवसाद के घूँट
जिसे पीकर मैं ढूँढती रही
अपने को
अपनों की भीड़ में।
एक आशा की डोर में बंधी
मुखौटों की दुनिया में
तलाशती रही अपने को
पर मुखौटे लगाए तो
वे छल रहे थे
अपने को भी और
अपनों को भी।
हम छलते रहे
और छलावे में रहे
और जीवन यूँ ही सरकता रहा
नदी के पानी की तरह
फिर कभी न लौट आने के लिए।