Arun Prasad
रात के अवसान का अवसाद जाता है नहीं
रात के अवसान का अवसाद जाता है नहीं। जो दिये तुम प्यार का सौगात जाता है नहीं।
मौन,नीरव,मूक अर्पण क्यों रहा नि:शब्द । पीपल पात सा चंचल हृदय का नाद जाता है नहीं।
हो गए हैं रक्त से रंजित गुलों के मुख। अधर के पान का सौगात जाता है नहीं।
पेड़ की भांति समर्पित मैं हुई ऋतुराज सा तुम। इस समर्पित मन से किन्तु,गर्व का सम्राट जाता है नहीं।
हो सुआपंछी गया लोचन हमारा देखकर पिंजरा। कीर के पर, पीर का अहसास जाता है नहीं।
हर अंधेरे मेन मिले हम,रौशनी में पट भिड़ाये। एक बस इस दोहरे व्यक्तित्व का भास जाता है नहीं।
तुम बनोगी स्नेह का पर्याय खोलकर अंचल पसारा। देह से सौंदर्य का पर,इंतकाम जाता है नहीं।
है अंधेरा दीप से डरता,दीया तूफान,आँधी से। रौशनी के रुदन का विश्वास जाता है नहीं।
धर्मशुद्धि हो न पाया आज भी आश्वस्त हैं हम। कृष्ण को भी समर का परिताप जाता है नहीं।
वक्ष से कटि तक अधर का स्वाद जाता है नहीं। रात के अवसान का अवसाद जाता है नहीं।
26/10/21---------------------