भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहाड़ी स्त्रियां / संतोष श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:45, 25 दिसम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहाड़ों की मज़बूती से
बनी पहाड़ी स्त्रियां
खेतों में कमरतोड़
मेहनत करती
गुनगुना रही होती हैं
कोई पहाड़ी गीत

ऊंचे नीचे पहाड़ों से
उतरती वादियों, ढलानों को
श्रम से सींच देती हैं
थकती नहीं पहाड़ी स्त्रियां

घने जंगलों को पार करती
खूंखार पशुओं से
खुद को बचाती
हिम्मत और हौसले से मुस्काती
खिले हुए जंगली फूल सी
मोहक होती है पहाड़ी स्त्रियां

जंगलों में अंधेरा छाते ही
जलावन लकड़ियों का बोझ
कमर पर उठाए
शाम ढले लौट आती हैं
पहाड़ी स्त्रियां

पकाती हैं मडुए की रोटी
पीसती हैं भांग की ,तिल की चटनी
दूध तपाकर गर्म घी के साथ
परोसती हैं थाली पति की

कामना करती है
उसके सुदीर्घ जीवन की
व्रत - त्योहार
सारे मंगल काज करती
कभी सुने सुनाए
कभी खुद के रचे गीत गाती
द्वार - दीवार पर
सुगढ़ता से चित्र उकेरती
एक दिन डूब जाती है
खामोशी से गुमनामी के
अंधेरों में
फिर कभी न लौटने के लिए
पहाड़ी स्त्रियां