भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भाषा / हर्षिता पंचारिया

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:23, 7 मार्च 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हर्षिता पंचारिया |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पता नहीं कितने तरीके
ईजाद किए है मनुष्य ने
तुम्हें समृद्ध बनाने के लिए।

हर कोस पर तुम्हारा
स्वरूप बदला है
पानी के साथ
पर स्मरण रहे
तुम्हारे ईश्वर ने
तुम्हारी आत्मा
को उतना ही छला है
जितना अँधेरा छलता है
रोशनी को।

छिली हुई भाषा परिष्कृत नहीं होती
बस असभ्यता की मोहर का ठप्पा
लिए एक ज़ुबान से दूसरी ज़ुबान
पर स्थानांतरित होती रहती है।

सुनो मेरी भाषा,
यदि कभी मेरा लहजा असभ्य हो
तो तुम मेरे ईश्वर तक मत पहुँचना।
क्योंकि
मेरा ईश्वर तुम्हारे
ईश्वर-सा छली नहीं है॥