भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्राचीन संसार / प्रकाश

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:47, 3 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रकाश |संग्रह= }} <Poem> प्राचीन संसार मुझे स्वीकार ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्राचीन संसार मुझे स्वीकार करने को खुलता है

प्राचीन संसार में जो सबसे प्राचीन है
उसमें एक गुफ़ा है
गुफ़ा-द्वार से झरता है प्रकाश
प्रकाश में मेरे नाम के न होने का प्रकाश है
मेरे नाम के न होने में मेरी किसी भी
पहचान के न होने का प्रकाश है

उस प्राचीन प्रकाश में सन्नाटा है
उस सन्नाटे को साधते
मैं गुफ़ा में प्रवेश करता हूँ
लम्बी अनंत-सी गुफ़ा के अंत में
बार-बार नवीन होता, प्राचीन एक और संसार है

मैं हर संसार के सन्नाटे में घूमता
एक बेचैन जीव
हर बेचैन जीव की यह साँस
समय को भेदती हुई
समय के पार एक और समय के
प्राचीन से नवीन होते
संसार के सीमान्त को छूती है
जहाँ होकर जीवित फिर जीवित हो जाता है।