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मनचाहा इतिहास / मंजुला बिष्ट

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हर शहर में
कुछ जगहें जरूर ऐसी छूट गयी होंगी
जहाँ मनचाहा इतिहास लिखा जा सकता था

वहाँ बोई जा सकती थी
क्षमाशीलता की ईख भरी खेती
जिन्हें काटते हुए अँगुलियों में खरोंच कुछ कम होती

वहाँ ज़िद इतनी कम हो सकती थी
कि विरोधों के सामंजस्य की एक संभावना
किसी क्षत-विक्षत पौड़ी पर जरूर मिलती

वहाँ किसी भटकते मासूम की पहचान
किसी आतातायी झुंड के लिये
उसके देह की सुरक्षा कर रहे धर्म-चिह्न नही
मात्र उसका अपना खोया 'पता' होता

वहाँ किसी खिड़की पर बैठी ऊसरता से
जब दैनिक मुलाकात करने एक पेड़ आता
जो उसे यह नही बताता कि;
उसने भी अब अपने ही अंधकार में रहने की शिष्टता सीख ली है
क्योंकि उसकी देह-सीमा से बाहर के बहुत लोग संकीर्ण हो गए हैं

लेक़िन
इतिहास के हाथ में बारहमासी कनटोप था
जिसे गाहे-बगाहे कानों पर धर लेना
उसे अडोल और दीर्घायु रखता आया है

हर शहर की कुछ ऐसी ही जगहें
अभी तक 'वर्तमान' ही घोषित हैं
मगर कब तक!