लोकतान्त्रिक छूना / रूपम मिश्र
बुखार से देह इतनी निढाल है कि मौत से पहले ही माटी की लगने लगी हूँ
घर से दूर हूँ तो घर की ज़्यादा लगने लगी हूँ
क़दमों में चलने की ताक़त नहीं
पर दोस्त से झूठ कहती हूँ कि आराम है
घर जाने के लिए बस की एक सुरक्षित सीट पर पसर जाती हूँ
खिड़की के पास की सीट अपनी लगती है
क्योंकि उसके बाद कोई कहाँ धकेलेगा
बस चली नहीं है और एक सज्जन बग़ल की सीट पर आ गए हैं
कुछ नए रंगरुट से हैं, पूछते हैं — कहाँ पढ़ाती हो ?
तकलीफ़ इतनी है कि होंठ खुलना ही नहीं चाहते, लेकिन जवाब तो देना था
कहा — कहीं नहीं !
सिर को आगे की सीट पर टिका दिया है, जिसपर टेरीकॉट का कुर्ता पहने एक अधेड़ और उदास आदमी बैठा है जिसकी धुवाँसी उंगलियों पर खड्डे ही खड्डे हैं
वह मुझे चिर-परिचित सा लग रहा है
बाबतपुर हवाई अड्डे पर एक जहाज़ अभी उड़ान पर था
बग़ल में बैठे साहब मुझे खिड़की से जहाज़ दिखाने लगे — देखो अब उड़ेगा !!
पल भर को लगा
जैसे कोई चीन्हार बच्ची को जादुई दुनिया दिखा रहा हो
पितृ स्नेह को अहका मेरा मन सिर न उठाने की मंशा को त्यागकर उनका मन रखने को जहाज़ देखने लगा
देह और मन दोनों इतने विक्लांत थे कि बार-बार देह का दाहिना हिस्सा किसी छुअन से खीजता
पर भ्रम समझ फिर निढाल हो जाता
लेकिन अन्ततः देह ने कहा — ये भ्रम नहीं है, एक धृष्टता है
लेकिन विरोध का चेत न मन में है न देह में
अन्ततः एक लोकतान्त्रिक भाषा में धीरे से मैंने कहा —
भाई साहब ! आप मुझे न छुइए ! देखिए, मैंने अब तक एकबार भी आपको नहीं छुआ है ।