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दोहे-5 / मनोज भावुक

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चढ़त उम्र के धूप बा, जियरा बा छपिटात।
'भावुक' दहकत साँस अब ढ़ोअल नइखे जात॥11॥

हमरा से ना हो सकल झूठ-मूठ के छाव।
चेहरा पर हरदम रहल, आंतर के हीं भाव॥12॥

छलक-छलक बहते रहल, पलक-पलक से नीर।
तबहू हलुका ना भइल 'भावुक' मन के पीर॥13॥

नोच रहल बाटे उहे, राउर रोआँ-पाँख।
जेकरा के दीहनी कबो, रउरा आपन आँख॥14॥

घुट-घुट के कइसन जियल 'भावुक' सुबहो-शाम।
दुनिया में बाटे बहुत, जीये के पैगाम॥15॥

कतहूँ असरा ना मिलल, पेड़ भइल जब ठूँठ।
पड़ल गिलहरी सोच में, दुनिया अतना झूठ॥16॥

अपने मत धूनल करीं, चलीं समय के साथ।
बेटो से पूछल करीं, ओकरा मन के बात॥17॥

जहवाँ बेटा-बाप ना, बइठे कबहूँ साथ।
ओइसन घर के घर कहीं, कइसे ए रघुनाथ॥19॥

जवना घर के मालिके, अनपढ़, मूर्ख, गँवार।
ओह घर के हम का कहीं, राम लगइहें पार॥20॥